हाल ही में 15 अगस्त को भारत देश की 135 करोड़ जनता ने 74 वा स्वतंत्रता दिवस हर्षोल्लास से मनाया हालांकि करो ना महामारी के चलते सभी ने सावधानी बरतने पर जो दिया, सरकार द्वारा इसके लिए एडवाइजरी भी जारी की गई लेकिन बहुत बार हम बाहरी स्वतंत्रता मनाते हुए अपनी आंतरिक स्वतंत्रता को नजरअंदाज कर देते हैं जितनी एडवाइजरी बाहर की स्वतंत्रता बनाने को जारी की जाती है उससे कहीं अधिक आंतरिक स्वतंत्रता के लिए एडवाइजरी हमारे ऋषि-मुनियों ने दी है जिसे हम अगर अपनाएं तो जीते जी मुक्ति पा सकते हैं हमारे ऋषि-मुनियों ने बाहरी स्वतंत्रता के साथ-साथ आंतरिक स्वतंत्रता पर काफी जोर दिया है जो हर धर्म का अंतिम उद्देश्य है . इसी स्वतंत्रता को बुद्ध ने ज्ञान द्वारा ,ईसा ने भक्ति द्वारा प्रतिपादित किया पतंजलि ऋषि के चारों योग- ज्ञान ,भक्ति कर्म और राज योग भी इसी स्वतंत्रता की ओर ले जाते हैं19वीं शताब्दी के महान चिंतक विचारक एवं योद्धा संत स्वामी विवेकानंद ने कर्म के रहस्य को बताते हुए बड़े साफ शब्दों में कहा कि रोजमर्रा की जिंदगी में कर्म करते हुए भी हम उस स्थिति को पा सकते हैं जिसमें मनुष्य का मन मस्तिष्क द्वारा केवल अच्छे कार्य करने के लिए बाधित होता है . वह अपनी पांचों ज्ञान इंद्रियों -मन बुद्धि चित्त अहंकार अंतःकरण एवं 5 कर्म इंद्रियों अपने नियंत्रण में रख सकता है.विवेकानंद कछुए का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस तरह कछुआ बाहर से आक्रमण होने पर अपने शेल के बीच में कुंठित बैठ जाता है और कितना भी बाहर हलचल हो वह उससे बाहर नहीं आता उसी तरह जिस व्यक्ति ने अपने आंतरिक प्रकृति पर विजय पा ली, अपने इंद्रियों को वश में कर लिया वह बाहरी किसी भी उथल-पुथल से प्रभावित नहीं होता.जीवन में हम बार-बार यही गलती करते रहते हैं कि जिन इंद्रियों को हमने अपने वश में कर प्रकृति पर विजय पाने थी उन इंद्रियों के खुद वश में होकर हम गुलाम की तरह जीते हैं .अगर हमारी आंख अच्छा देखने को कहती है तो हम उसे अच्छा दिखाने के लिए लालायित हो जाते हैं जीभ कुछ स्वाद भोगने को कहती है तो हम उसके पीछे चल पड़ते हैं.सांख्य योग में यह बार-बार आया है कि इस पूर्ण प्रकृति का उद्देश्य केवल एक ही है और वह है मनुष्य को हे ज्ञान देना कि उसका कार्य केवल मन और इंद्रियों को साधना है, मानव जीवन का उद्देश्य जीने के लिए खाना है ना कि खाने के लिए जीना .शास्त्रों में बार-बार एक ही बात को दोहरा है क्या कि हमें गुलाम की तरह काम नहीं करना ,आंतरिक मन में उठने वाले बरीतियों से ना मिलकर, एक किनारे होकर सिर्फ देखना है कि यह सब कुछ हो रहा है दृष्टा भाव, साक्षी भाव मन को नियंत्रित करने में बहुत मदद करता है स्वामी विवेकानंद ने आगे कहा कि जैसे एक गुलाम के कार्य में कुछ प्रेम नहीं होता वह अपनी प्रकृति से बंधा उस कार्य को करता जाता है पर उसमें कोई आनंद की प्राप्ति नहीं होती .उसी तरह जब हम अपनी इंद्रियों के वश में कार्य करते हैं तो उसमें आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती उन्होंने लिखा कि स्वार्थ भाव से किया गया काम गुलाम का काम है और दूसरों के लिए निस्वार्थ किया गया हर कार्य में खुशी देता है क्योंकि वह स्वतंत्र कार्य है.हम उसके परिणाम के प्रति बाधित नहीं है बल्कि स्वतंत्र है जीवन में शांति और मुक्ति पाने का यह सबसे बड़ा मंत्र हैचाहिए पूर्ण स्वतंत्रता को अपने जीवन में महसूस करें